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"Short story"

"लघु कथा"

आओ देखे कुछ किताबों को ।  

शायद  मिल जाये अतीत इन किताबों में. 

आओ पढ़े इन किताबों को, 

चलो बैठो,

तुम कही गुम हो, चुप हो, खामोश हो। 

आओ यहाँ बैठो,

शायद  कुछ मिल जाए,कुछ छुपा हुआ,

इन किताबों में। 

मैं बैठा हूँ डरो नहीं,

बैठो तो सही, 

लो पकड़ो इन किताबों को, 

मेरे पास शायद कुछ किताब हैं,

चलो पढ़ते हैं इन लाल हरी काली दस्ते वाली किताबों को ।

तुम जो किताब लिए बैठे हो शायद वो मेरी जिन्दागी हो

तो कियूं न हम साथ साथ बैठ पड़ते एक और क़िताब।

जिसका नाम हो “हम और तुम”

नीलाम दोस्ती 

 

दो दोस्तों! 

जिनका जीना-मरना, खाना-पीना सभी एक साथ चाहें सब्जी हो चाहें मुर्ग-मसल्लम। सब साथ-साथ।  मगर घरों में सभी चीजों की बराबरी न थी। दूरियाँ बोहोत थी। रीती रिवाज़ हो या धर्म ही क्यूँ न हो।  मगर एक बात दोनों में समान थी। दोनों पढाई में होशियार बोहोत थे। एक साथ पढ़ना लिखने के साथ साथ स्कूल, कॉलिज के सभी  प्रोग्राम में अव्वल आते थे।  साथ ही सॉशल एक्टिविटी में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे किसी का दुःख देखा नहीं जाता था उन दोनों से। 

  समय के साथ-साथ दोनों के परिवार अलग हो गए। एक ने वही कस्बे में हॉल-सेल की छोटी दुकान खोल ली थी. दूसरे ने अपने परिवार का बिज़नेस को आगे बढ़ाया और बड़े शहर चला गया। अब दोनों में कोई बात-चीत की सम भावना नहीं थी दोनों को मिले अरसा हो गया था. शायद एक दूसरे का चेहरा भी भूल गए होंगे अब तक तो. सालों से दोनों नहीं मिले भी नहीं थे। दो धर्मों की लड़ाई की वज़ह से. दोनों में धर्म को लेकर बेहेस होने लगी थी. जिसकी वजहें से दोनों में दूरिया बढ़ने लगी थी, और एक दिन दोनों में दरार पड़ गई थी. दोनों के परिवार एक दूसरे के दुश्मन हो गए । 

 अब दुकानदार बड़ा हॉल - सेलर बन गया था। उसका दोस्त वो अब बड़ा बिज़नेस मैन  बन गया था। बड़ा होलसेलर अपनी दुकान पर अपने दोस्त की कम्पनी में बनाई चीजों को भी बेचा करता था। मगर दुकानदार काफी दिनो से देख रहा था के कोई समान नहीं आ रहा हैं। एक दिन सुबह की चाय पीते हुए अचानक उसकी नज़र पेपर की एक न्यूज़ पर पढ़ी. वो कंपनी दिवालिया घोषित हो गई हैं और नीलाम होने जा रही हैं। 

कुछ समय पश्चात दुकानदार अपनी पत्नी का चेक-अप कराने एक नामी हॉस्पिटल में गया हुआ था।  डॉ के केैबिन में बैठा था, जब डॉ.नहीं आया तो वो नर्स से पूछ कर वही पास के कमरे में चला गया। जहां डॉ.किसी मरीज़ को देख रहा था। अंदर जाने से पहले उसकी नज़र मरीज़ पर पड़ गई। जिसको देख दुकानदार परेशां हो गया और साइड में खड़ा हो कर डॉ.और मरीज़ की बाते सुनने लगा।  

डॉ. से मिलने पर उसने उस मरीज़ के बारे में पूछा। डॉ. ने बताया के ये कुछ समय पहले तक एक अमीर इंडरस्ट्रियल हुआ करते थे। पर अब ये वापस ज़मीन पर आ गया हैं और ये साहब बड़ी बीमारी के भी शिकार हो चुके हैं, जिसका खर्च भी बड़ा हैं।और ये खर्च उठाने में असमर्थ हैं। उनका  इलाज यहाँ नहीं हैं मुंबई जैसे बड़े शहर जाना पड़ेगा। अब दुकानदार रोज़ आता और अपने दोस्त को देख कर दूर से चला जाता। डॉ. से मिल कर उसने उसके इलाज का सारा खर्च उठाने को कहा जिसके बाद डॉ. ने मरीज़ से कहा के एक गैर सरकारी संस्थान हैं जिसने तुम्हारे जैसे लोगो की मदद का बीड़ा उठाया हुआ हैं तुम्हारा इलाज अब हो जायेगा, तुम जल्द ठीक हो जाओगे। मरीज़ को दूसरे हॉस्पिटल में ले जाया जाता हैं। उस बिज़नेस-मैन के बार-बार सवाल पूछने पर भी डॉ. उसके सवालों को टाल जाते थे। 

कुछ समय के बाद 

एक दिन डॉ के पास दुकानदार मरीज़ का पता लेने आता और  कुछ फाइल भी अपने साथ ले आता हैं  और बड़ी खुशी ख़ुशी डॉ को अपने दोस्त की कुछ खट्टी-मीठी बाते बताने लगता हैं। कुछ मिनटों के बाद  उसके कंधे पर एक हाथ रखा जाता हैं जिसकी मजबूती को वो शायद जनता था। दुकानदार धीरे से मूड कर देखता हैं तो उस आदमी की आँखों का पानी दुकानदार के गालो पर तेज़ी से टपक रहा होता हैं। हाथों से छड़ी गिर जाती हैं और तेजी से दोनों के सीने आपस में लिपट जाते हैं जो लगता हैं शायद फेविकोल से चिपकाया गया हो लगता हैं. दोनों की तेज धड़कन पास खड़े लोग सुन सकते थे। दोनों ने एक दूसरे को अपने हाथों के बंधन से भींच रखा था। 

कुछ देर बाद।

 दुकानदार अपने हाथ से चाय का प्याला रख, साथ लाया कुछ फाइलों को अपने दोस्त को देता हुआ कहता हैं “ये तुम्हारे लिए मेरी और से एक छोटा सा उपहार हैं” “उपहार तो तुम मुझे पहले ही दे चुके हो मुझे नया जीवन दे कर अब क्या दे रहे हो।” उन फाइलों को देख उसका दोस्त उसका ऋणी हो गया। इन फाइलों में उसकी नीलाम हो चुकी इंडरस्ट्री के कागज़ात थे. जिसको नीलामी से खरीद कर उसका बचपन का दोस्त अपने उसी बचपन के दोस्त को उपहार में दे रहा था। 

वक़्त था दोनों परिवार को मिलने का तो जल्द दोनों परिवार वापस उन्ही मकानों में रहने लगे थे जो बरसों पहले छोड़ गए थे।

  

लेखक 

इज़हार आलम  देहलवी 

writerdelhiwala.com 

अब्बू की मेहक 

 

 “या अल्लाह आज क्या होगा” “पिछले साल जैसा न हो, अल्लाह ऐसा मत करना, आज बोहोत बड़ा दिन हैं आई.ए.एस. का फाइनल रिजेल्टआने वाला है” I इस दिन के लिए लिए “ मेहक मेहँदी” ने बड़ी मेहनत की थी। 

 घर बोहोत कर्ज़दार हो गया था मेहक की कोचिंग करने में। अब्बू एक छोटी सी परचून की दुकान पर मुन्सी का काम करते थे। वहा से उनको 2500/- रुपए महीना तन्खुआ मिलती थी। ड्यूटी भी 18 घंटे थी ।  घर वालो को टाइम ही कहा दे पते थे। सुबह बच्चों को सोते हुए छोड़ जाते,और देर रात को लौटते थे। मेहक पड़ती हुई छोटे से मकान का दरवाज़ा खोलती थी। बस यही मुलाकात होती हैं अब्बू से। अब्बू को खाना बना कर देना रोज़मर्रा थी मेहक की। और फिर वही पढ़ाई करना। यही थी कड़ी मेहनत की मेहक की। इस दिन के लिए। “लो वेब साइट पर हल-चल बढ़ गई हैं खुल क्यूँ नहीं रही हैं ये वेब साइट”। “कम्बखत” “खुल जा न” , अल्लाह,अल्लाह  करती हुई मेहक में अपना रोल नम्बर वेब साइट में सर्च किया और आँखें बंद करके अल्लाह का नाम लेने लगी। मेहक मेहक ये क्या हुआ उसकी दोस्त बोली जो साथ ही खड़ी थी उसके। मेहक आंखे बंद करके। ” क्या है” बोहोत डरी हुई थी मेहक। आंखे खोलो मेहक आंखे खो-लो। “नहीं नहीं पहले रिजल्ट में क्या आया हैं जल्दी बताए” .तभी मेहक पर ठंडा पानी गिरता हैं । “ तुम अभी भी उस सदमे में हो अरे बेटा  वो 2 साल पहले की कहानी हैं अभी तो तुम को तैयार हो कर ऑफ़िस जाना हैं आज इस ऑफ़िस में पहला दिन हैं बेटा। जल्दी तैयार हो जाओ मेरी प्यारी आई.ए.एस. मिस मेहक मेहँदी।”अब्बू बैठे थे सामने।  चादर से मोह पोछती हुई । मेहक डरी डरी सी बैठी थी, के सामने अब्बू को देख उनसे लिपट गई और अब्बू के  कहने पर जल्द तैयार होने चली गई। मेहक के अब्बू उन दिनों को याद करते हैं, किस कदर रोइ थी, जब वो पहली बार फेल हुई  थी, आई.ए.एस. के एक्जाम में सारे सपने टूट गए थे। मेहक ने उसके बाद एक फ़ैक्टरी में मुंशी का काम करने लग गई थी। अपने अब्बू का हाथ बटाना चाहती थी ताकि अब्बू का कर्ज का बोझ कम कर सके और अपने छोटे भाई बहनों को भी पालने में मदद कर सके। अब्बू कर्ज़दार जो हो गए थे  मेहक की कोचिंग कराने में। 

 अब्बू के समझाने के बाद वो रात में  पड़ती सुबह से 1 बजे तक कोचिंग, फिर फ़ैक्टरी में पार्ट टाइम जवाब करती, कड़ी मेहनत की मेहक ने।  अपने इस ख़्वाब को पाने के लिए,इसकी मेहनत  इस मुकाम पर ले आई हैं हार को जीत में बदलना ये मेहक से सीखा हैं। मेने 

 आज उसी छोटे से घर के बहार सेकड़ो लोग हाथों में फूल लिए मौजूद थे,जो लड़की को न पढ़ाने की सलाह देते थे । 

 

लेखक 

-इज़हार आलम dehelvi ----

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